Tuesday 21 November 2017

"मेरा मन भी सुखा पत्ता"

पेड़ की झुकी डाली से
टूट गिरा एक पत्ता हूँ
जैसे शरीर से भिन्न एक अंग
तुम बिन दिल वहीन मैं!
जैसे पत्ता कभी हरा रहता
तो कभी सुख जाता है
कभी बसंत तो
कभी सावन
तो कभी भादो
कभी माघ मौसम की
मारो को झेलता
वैसे ही मेरा मन भी
कभी प्यार करता तो
कभी नफरत
कभी हँसता
कभी रोता
कभी सताता
तो कभी मनाता
कभी फ्रिक करता
तो कभी बेफ्रिक के भावों के
द्वंद में उलझा रहता!
दिल से प्यार
पत्ते से नमी
फूल से खुशबु
सागर से खारापन
नदी से जल
शरीर से रक्त
हवा से प्रवाह
बादल से आकाश
सूर्य से प्रकाश
चाँद से चाँदनी
रात से उजाला
जुदा नहीं हो सकते
वैसे तुम मेरी साँसो से!
वैसे क्षण तुम
जुदा हो जाओगे
मेरा मन सुखकर
पत्ता हो जाएगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

No comments:

Post a Comment