आदमी मुखौटा है
या मुखोटे में आदमी
ये पहेली अनसूलझी है!
कौन असली होकर भी
नकली सा है
और कौन नकली होकर
असली सा है!
कलयुग में ये फेर
समझना मुश्किल है!
कौन सच्चा
कौन झूठ है
तराजू से तौलना कठिन है
क्योंकि झूठ सौ बार कहकर
सच बन जाता
सच चिल्ला चल्ला कर भी
झूठ का झूठ रह जाता !
मुखौटा एक त्योहार भी है
जहाँ बेहरूपिया बारह रूप बदलता है
जब जिसकी जरूरत
वो लगा लेता है
दूसरे को उतार देता है
वैसे ही इन्सान है
सदा एक रूप में नहीं रहता!
कभी शैतानों के भेष में छुप कर
तमाशा देख रहा होता तो
कभी सच्चा इन्सानों से
तमाशा करवा रहा होता
एक तो हम भगवान के
इशारों पर नाच रहे होते
दुजा मुखोटे के अदृश्य चेहरे के
जो ऊपर से भोला भाला सा लगता है
पर अंदर से बड़ा गंदा है
जैसे पर्यावरण में फैलता प्रदूषण हो
और समाज में छुपा शैतान
डरावानी रात सा असुरक्षित हो जाता
स्त्री का लाज
और आदमी की जान
प्रदूषण जैसी पूरे वातावरण में
ज़हर फैलाना चाहता
वैसे शैतान सबको अपने
प्रतिरूप सा बनाना चाहता!
मुखौटा तो हर कोई पहने शारफ़त के रूप दिखाता पर हर कोई शरीफ़ नहीं है!
एक मुखौटा नेता तो
दूजा अभिनेता
तीजा डॉक्टर,इजीनियर
चौथा समाजसेवी
पाँचवा साहित्यकार पहने है
छठा आधुनिक गुरू
साँतवा पुलिसवाला
आँठवा काला कोट वाला
नैवाँ प्रशासक
दसवाँ सेवक चपरासी
समाज में सारी समस्याओं के
कर्ताधर्ता बने हुए है
पर केवल दिखावटी है
कोई कागज पर करता
कोई काऩून बना
कोई योजनाओं पर
कोई प्रोजेक्ट बना करता
कोई टेंडरिंग लें
कोई दवा की पर्ची पर
कोई सरकारी फंड लेकर
फिर व्यवस्था वैसे ही वैसी रह जाती
बस मामूली बदलाव सा दिखता
क्योंकि एक मुखौटा उतारता है
दूसरा उसे फिर लगा लेता!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२४/११/१७
Friday 24 November 2017
"आदमी मुखौटा है"
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