Wednesday, 15 November 2017

मैं मोम की गुडियाँ हूँ

"मैं मोम की गुडियाँ हूँ"
मैैं मोम की गुड़ियाँ हूँ या
केवल देह की गुडियाँ हूँ
मैं औरत बस यही तो हूँ
ऊपर से भरी भरी मंसलवाली
अंदर से सी कंकाल सी खाली खाली!
जैसा चाहे मुझे खेलो जब जी भर जाए तो
फेंको या तोड़ो या मोड़ो पुरानी वस्तुओं की तरह!
गुडियाँ भी सजावटी और मैं भी
बस फर्क बस इतना है कि
मैं अपने फूले से सीने से साँस लेती हूँ
जिस पर तुम्हारी गिद्द सी दृष्टी रहती है
नोंच लेने की छूने और दबाने की
क्या बस मैं एक जीवित खिलौना हूँ
पुरूषों के खेलने की!
कब तक छलती जाऊँगी
तन और मन से
कब तक टूटती जाऊँगी
मन और अंर्तमन से
कब तक मरती रहूँगी
घर और परिवार के लिए
कब तक यूँ जीती रहूँगी
रोज रोज मर कर रोज रोज जी कर
यूँ ही ये सिलसिला कब तक चलेगा
मैं कब केवल देह से आज़ाद होकर
एक इन्सान बनूँगी
एक ऐसी औरत जो स्वंय
आत्म विश्वास से भरी भरी हो
आशाओं के उड़ान भरने के लिए
खतरों से डरकर नहीं डटकर लड़ने के लिए भय व छलावे के दुनिया में
अपना मुकाम बनाकर
एक खुली व स्वच्छ आसमान पा कर!
कुमारी अर्चना
जन्मस्थान-पूर्णियाँ
मौलिक रचना
१५/११/१७

No comments:

Post a Comment