मैं बिखरे रिश्तों को हाथों की अंजूरी में बटोर लेना चाहती हूँ जैसे की मोती हो! मैं उलझे रिश्तों की डोर को धागों जैसी सुलझाना चाहती हूँ जिससे रिश्तो की डोर अन्नत आकाश छू सके! मैं रिश्तों के दरार को विश्वास की सीमेंट से भर देना चाहती हूँ कभी विलग ना हो! मैं टूटते रिश्तों को टूटे बरतनों जैसी प्यार के फेबिकॉल से चिपका देना चाहती हूँ कभी उखड़े नहीं अपनी जडों से! मैं जिन्दगीं में आने वाले अजनबियों से भी रिश्ता बना लेना चाहती हूँ कुटुबों की संख्या में नित बढ़ोत्ररी हो! मैं जीवन में सदा के लिए छोड़ दिए रिश्तों का इश्योरेंन्स करवा देना चाहती हूँ ताकि वो जीवन में और जीवन के बाद भी सदा साथ रहे! रिश्ते डेबिड कार्ड जैसे है जिन्हें मैं हर पल संभाल कर पास रखना चाहती हूँ जब जहां चाहो वहाँ भंगा लूँ नज़र से दूर फिर भी पास।
कुमारी अर्चना मौलिक रचना, पूर्णियाँ,बिहार
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